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दुनिया का घाव!

दुनिया का घाव!  

दुनिया  का घाव  सुखाने  चला  हूँ, 
बुझता  चराग  मैं  जलाने  चला हूँ।
बच्चों के  जैसा  शहर  क्यों  हँसें न, 
कोई   मिसाइल  जमीं  पे  फटे  न।  
आँखों  में  आँसू  क्यों   कोई  लाए,
खोती  चमक  मैं   बढ़ाने  चला  हूँ।
बुझता  चराग  मैं  जलाने  चला  हूँ,
दुनिया  का  घाव  सुखाने  चला  हूँ।

दुनिया को कदमों में वो क्यों झुकाए,
लहू  बेगुनाहों  का   क्यों  वो  बहाए?
जलालत, जहां  से  मिलकर  मिटाने,
मोहब्बत  की  पूँजी  बढ़ाने  चला हूँ।
बुझता   चराग  मैं   जलाने  चला  हूँ,
दुनिया  का   घाव  सुखाने  चला  हूँ।

अदब का  हम  छप्पर  क्यों न उठाएँ,  
बिकने को  खुद को  खुद से  बचाएँ। 
उजड़े न दिल  की अब  कोई  सरायें,  
सुकूँ  की वो  रात मैं  लाने  चला  हूँ। 
बुझता   चराग   मैं  जलाने  चला  हूँ,
दुनिया  का   घाव  सुखाने  चला  हूँ।

जुल्फों   के   बादल   वापस    घिरेंगे, 
निगाहें-ए- जाम  हम  फिर से पिएँगे।
अदाओं का बोझ  मैं  उठाने  चला हूँ,  
बुझता   चराग  मैं   जलाने  चला  हूँ,
दुनिया  का   घाव  सुखाने  चला  हूँ। 

रामकेश एम.यादव (कवि,साहित्यकार),मुंबई

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1 Comments

Renu

25-Jan-2023 03:51 PM

👍👍🌺

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